नजरिये का खेल

जब हम किसी घटना,हालात या किसी के प्रति हम जो भाव रखते हैं, सोच बना लेते हैं। प्रमाण पर आधारित हो सकती है या दिल के किसी हिस्से में यह विश्वास घर कर जाता है कि यह गलत है या सही है। फिर हमारा एक नजरिया बन जाता है। उस नजरिये को हम बनाकर रख सकते हैं या बदल भी सकता है। नजरिया बदलने से खेल बदलता है। हमारे मन में या अन्य जगह माहौल तनावपूर्ण हो जाता है तो तब भी हम नजरिया बदलकर खुशी तलाश सकते हैं। नजरिया बदलने से तनाव, आपसाद भी खुशियों में परिवर्तन हो सकता है।

सारा खेल भावनाओ के भड़कने पर टिका रहता है। आपकी भावनाएँ भड़क सकती हैं तो सामने वाले की भी भावनाएँ भड़क सकती हैं। भावनाओ के भड़कने से ही सारा खेल शुरु होता है। और फिर सारे गलत खेल शुरु होते हैं। कई बार भावनाओ को दबाने पर वो ओर ज्यादा भड़क जाती हैं। 

हम दूसरों से कम ही बातें करते हैं चाहे वो कितना भी करीबी हो पर सच यह है हम अपने आप से हर पल बातें करते रहते हैं। हम हर रोज हर विषयों का अपने स्तर पर आकलन करते रहते हैं। इसी आकलन पर निर्भर होता है विपरीत परिस्थितियों में किस तरह की प्रतिक्रिया देते हैं। जब मन विचलित हो तो मन को राहत देने के लिए उस तनाव को एक नाम दें। नयी पुरानी स्थितियों से मूल्यांकन करिए। दोनों में से सही कौन हैं। जो सही लगे उसी पर चले। पुर्नमूल्यांकन के तहत अलग नजरिए से देखे,सोचे। निश्चय ही आप तनाव से राहत पाओगे।

जब हमें कोई तस्वीर रोते हुए। तो हम विचलित हो जाते हैं। जब हमें बताया जाता है कि रोने वालों का अपना कोई लम्बी बीमारी से उभर गया।उस पल के भाव है। क्योंकि हम जानते हैं की खुशी में भी आंखें भर जाती हैं,पलके गिली हो जाती हैं। और दुख में भी। बात सच जानने की हैं।

नजरिया बदलने से भावनाएँ भी बदल जाती हैं। किसी के भी प्रति हमारी भावनाएँ हमारे दृष्टिकोण से ही बनती हैं। यदि दृष्टिकोण बदलने से भावनाएँ बदल जाती हैं। सार है कि जीवन में सकारात्मकता को जगह देनी चाहिए। आशावादी लोग जीवन में बहुत ज्यादा आनंदित रहते हैं।यह जीवन है और जीवन उथल-पुथल तो आती रहती हैं। परिस्थितियाँ अनुकूल प्रतिकूल बनती रहती हैं। हमें उजले पक्ष की तरफ देखना चाहिए। वैसे भी अंधेर में कब किसी को कुछ नजर आता है। 

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